शायद इसी को मोक्ष कहते हैं

कभी -कभी जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब लगता है कि मोक्ष………शायद इसी को मोक्ष कहते हैं। ऐसा ही वाक्या हुआ जब -Mr. Verma ने अपना अनुभव बताया –
“आज सुबह “morning walk” पर,
एक व्यक्ति को देखा।मुझ से आधा “किलोमीटर” आगे था।
अंदाज़ा लगाया कि, मुझ से थोड़ा “धीरे” ही भाग रहा था। एक अजीब सी “खुशी” मिली।

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मन में आया कि मै उससे आगे निकल सकता हूँ ,मैं पकड़ लूंगा उसे, और यकीन भी।मैं तेज़ और तेज़ चलने लगा ,आगे बढ़ते हर कदम के साथ,मैं उसके “करीब” पहुंच रहा था। कुछ ही पलों में, मैं उससे बस सौ क़दम पीछे था।

मैने निर्णय ले लिया था कि, मुझे उसे “पीछे” छोड़ना है। थोड़ी “गति” बढ़ाई।अंततः कर दिया।उसके पास पहुंच, उससे “आगे” निकल गया। “आंतरिक हर्ष” की “अनुभूति”,कि, मैंने उसे “हरा” दिया।”

माना कि Mr Verma ने उसको हरा दिया या उससे आगे निकलने में सफल हो गए ,पर क्या अगर उस व्यक्ति को य पता होता कि कोई उनसे आगे निकलने का प्रयास कर रहा है तो क्या ऐसा हो पता नहीं,ऐसा नहीं हो पता इसका तात्पर्य यही है हम जब भी किसी से प्रतिस्पर्धा करें तो किसीको भी पता न हो ताकि हम सफल हो जाएँ ,खैर Mr वर्मा ने एक क्षण सफलता तो प्राप्त की पर

“प्रारब्ध” सारे जन्मो के संचित कर्म का एक घटक है,

जब Mr. Verma के दिलो-दिमाग “प्रतिस्पर्धा”पर, इस कद्र केंद्रित था…….कि “घर का मोड़” छूट गया, मन का “सकून” खो गया,आस-पास की “खूबसूरती और हरियाली” नहीं देख पाये अच्छा मौसम की “खुशी” को भूल गये।

तब “समझ” में आया, यही तो होता है “जीवन” में,भी है ,जब हम अपने साथियों को, पड़ोसियों को, दोस्तों को,परिवार के सदस्यों को, “प्रतियोगी” समझते हैं। उनसे “बेहतर” करना चाहते हैं।”प्रमाणित” करना चाहते हैं कि, हम उनसे अधिक “सफल” हैं,या अधिक “महत्वपूर्ण” है ।

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ये वक्तव्य जीवन में बहुत “महंगा” पड़ता है।
क्योंकि हम अपनी “खुशी भूल” जाते हैं।अपना “समय” और “ऊर्जा, उनके “पीछे भागने” में गवां देते हैं।
इस सब में, अपना “मार्ग और मंज़िल” भूल जाते हैं। ये भी “भूल” जाते हैं कि, “नकारात्मक प्रतिस्पर्धाएं” कभी ख़त्म नहीं होंगी। “हमेशा” कोई आगे होगा।

किसी के पास “बेहतर नौकरी” होगी।”बेहतर गाड़ी”, बैंक में अधिक “रुपए”, ज़्यादा पढ़ाई, “सुन्दर पत्नी” ज़्यादा संस्कारी बच्चे, बेहतर “परिस्थितियां” और बेहतर “हालात” होंगे ।

इन सब में एक “एहसास” ज़रूरी है कि, बिना प्रतियोगिता किए, हर इंसान “श्रेष्ठतम” हो सकता है।

कुछ “असुरक्षित” महसूस करते हैं क्योंकि, अत्याधिक ध्यान दूसरों पर देते हैं कि -कहां जा रहे हैं? क्या कर रहे हैं? क्या पहन रहे हैं? क्या बातें कर रहे हैं?इन्ही सब मन के विकारों में बेकार में व्यर्थ की चिंता लेते हैं।

हमको चाहिए जो है, उसी में❤️ खुश रहे”। लंबाई, वज़न या व्यक्तित्व…। “स्वीकार” करे और “समझे” कि, कितने भाग्यशाली है।

अपना ध्यान नियंत्रित रखे।स्वस्थ, सुखद ज़िन्दगी जीये।”भाग्य” में कोई “प्रतिस्पर्धा” नहीं है। “तुलना और प्रतियोगिता” हर खुशी को चुरा लेते‌ हैं।

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इस लिए अपनी “दौड़” खुद लगाये, बिना किसी प्रतिस्पर्धा के, इससे असीम सुख तथा अपार आनंद मिलता है।

मन में विकार नही पैदा होंगे। प्रसन्नता का अनुभव होगा , शायद इसी को “मोक्ष” कहते है।
😊

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